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अब ये आँखें किसी तस्कीन से ताबिंदा नहीं | शाही शायरी
ab ye aankhen kisi taskin se tabinda nahin

ग़ज़ल

अब ये आँखें किसी तस्कीन से ताबिंदा नहीं

ज़िया जालंधरी

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अब ये आँखें किसी तस्कीन से ताबिंदा नहीं
मैं ने रफ़्ता से ये जाना है कि आइंदा नहीं

तेरे दिल में कोई ग़म मेरा नुमाइंदा नहीं
आगही तेरी मिज़ा पर अभी रख़्शंदा नहीं

दिल-ए-वीराँ दम-ए-ईसा है गए वक़्त की याद
कौन सा लम्हा-ए-रफ़्ता है कि फिर ज़िंदा नहीं

तू भी चाहे तो न आएगी वो बीती हुई रात
है वही चाँद मगर वैसा दरख़शिंदा नहीं

अब्र-ए-आवारा से मुझ को है वफ़ा की उम्मीद
बर्क़-ए-बेताब से शिकवा है कि पाइंदा नहीं

कभी ग़ुंचे को महकने से कोई रोक सका
शौक़ अगर है तो फिर इज़हार से शर्मिंदा नहीं