अब तो हर एक अदाकार से डर लगता है
मुझ को दुश्मन से नहीं यार से डर लगता है
कैसे दुश्मन के मुक़ाबिल वो ठहर पाएगा
जिस को टूटी हुई तलवार से डर लगता है
वो जो पाज़ेब की झंकार का शैदाई हो
उस को तलवार की झंकार से डर लगता है
मुझ को बालों की सफ़ेदी ने ख़बर-दार किया
ज़िंदगी अब तिरी रफ़्तार से डर लगता है
कर दें मस्लूब उन्हें लाख ज़माने वाले
हक़-परस्तों को कहाँ दार से डर लगता है
वो किसी तरह भी तैराक नहीं हो सकता
दूर से ही जिसे मंजधार से डर लगता है
मेरे आँगन में है वहशत का बसेरा 'अफ़ज़ल'
मुझ को घर के दर-ओ-दीवार से डर लगता है
ग़ज़ल
अब तो हर एक अदाकार से डर लगता है
अफ़ज़ल इलाहाबादी