अब तक मिरे अहवाल से वाँ बे-ख़बरी है
ऐ नाला-ए-जाँ-सोज़ ये क्या बे-असरी है
हो जावे है उस की सफ़-ए-मिज़्गाँ से मुक़ाबिल
इस दिल को मिरे देखियो क्या बे-जिगरी है
किस बाग़ से आती है बता मुझ को कि फिर आज
कुछ और ही बू तुझ में नसीम-ए-सहरी है
तेरा ही तलबगार है दिल दोनों जहाँ में
ने हूर का जूया है ने मुश्ताक़-ए-परी है
है और ही कुछ आब-ओ-हवा शहर-ए-अदम की
हर शख़्स जो 'बेदार' उधर को सफ़री है
ग़ज़ल
अब तक मिरे अहवाल से वाँ बे-ख़बरी है
मीर मोहम्मदी बेदार