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अब शहर की और दश्त की है एक कहानी | शाही शायरी
ab shahr ki aur dasht ki hai ek kahani

ग़ज़ल

अब शहर की और दश्त की है एक कहानी

सलीम शाहिद

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अब शहर की और दश्त की है एक कहानी
हर शख़्स है प्यासा कि मयस्सर नहीं पानी

मैं तोड़ भी सकता हूँ रिवायात की ज़ंजीर
मैं दहर के हर एक तमद्दुन का हूँ बानी

मैं ने तिरी तस्वीर को क्या रंग दिए हैं
अंदाज़ बदल देता है लफ़्ज़ों के मआ'नी

अब भी है हवाओं में गए वक़्त की आवाज़
महफ़ूज़ है सीनों में हर इक याद पुरानी

मैं सब से अलाहदा हूँ मगर मुझ में है सब कुछ
ठहरा हुआ सहरा हो कि दरिया की रवानी

इक उम्र से इन आँखों ने बादल नहीं देखे
देखी न सुनी थी कभी ऐसी भी गिरानी