EN اردو
अब के अजब सफ़र पे निकलना पड़ा मुझे | शाही शायरी
ab ke ajab safar pe nikalna paDa mujhe

ग़ज़ल

अब के अजब सफ़र पे निकलना पड़ा मुझे

सय्यद ताबिश अलवरी

;

अब के अजब सफ़र पे निकलना पड़ा मुझे
राहें किसी के नाम थीं चलना पड़ा मुझे

तारीक शब ने सारे सितारे बुझा दिए
मैं सुब्ह का चराग़ था जलना पड़ा मुझे

यारान-ए-दश्त रौनक़-ए-बाज़ार बन गए
सुनसान रास्तों पे निकलना पड़ा मुझे

हर अहल-ए-अंजुमन की ज़रूरत थी रौशनी
मैं शम-ए-अंजुमन था पिघलना पड़ा मुझे

ज़ालिम बहुत है शिद्दत-ए-एहसास-ए-आगही
अक्सर पराई आग में जलना पड़ा मुझे

राहों के पेच-ओ-ख़म में बला के तिलिस्म थे
चलना बड़ा मुहाल था चलना पड़ा मुझे

आसाँ नहीं था ज़ुल्मत-ए-शब से मुक़ाबला
सर पर जला के आग पिघलना पड़ा मुझे