अब के अजब सफ़र पे निकलना पड़ा मुझे
राहें किसी के नाम थीं चलना पड़ा मुझे
तारीक शब ने सारे सितारे बुझा दिए
मैं सुब्ह का चराग़ था जलना पड़ा मुझे
यारान-ए-दश्त रौनक़-ए-बाज़ार बन गए
सुनसान रास्तों पे निकलना पड़ा मुझे
हर अहल-ए-अंजुमन की ज़रूरत थी रौशनी
मैं शम-ए-अंजुमन था पिघलना पड़ा मुझे
ज़ालिम बहुत है शिद्दत-ए-एहसास-ए-आगही
अक्सर पराई आग में जलना पड़ा मुझे
राहों के पेच-ओ-ख़म में बला के तिलिस्म थे
चलना बड़ा मुहाल था चलना पड़ा मुझे
आसाँ नहीं था ज़ुल्मत-ए-शब से मुक़ाबला
सर पर जला के आग पिघलना पड़ा मुझे

ग़ज़ल
अब के अजब सफ़र पे निकलना पड़ा मुझे
सय्यद ताबिश अलवरी