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अब कहाँ ले के छुपें उर्यां बदन और तन जला | शाही शायरी
ab kahan le ke chhupen uryan badan aur tan jala

ग़ज़ल

अब कहाँ ले के छुपें उर्यां बदन और तन जला

शहाब जाफ़री

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अब कहाँ ले के छुपें उर्यां बदन और तन जला
धूप ऐसी है कि साए से भी पैराहन जला

छीन लो एहसास मुझ से छीन लो मेरा शुऊर
इस घटा में तन फुंका इस रौशनी से मन जला

ज़िंदगी दश्त-ए-सराब और सर पे इक सूरज मुहीत
मैं तो मैं हूँ मेरे साए का भी सब तन मन जला

किस सदा की ज़र्ब से टूटा सुकूत-ए-संग-ए-दश्त
एक चिंगारी उड़ी सारा का सारा बन जला

दिल जो था सीने में बच सकते थे कब अहल-ए-ख़िरद
शहर में इक शोर था दामन जला दामन जला

दिल-दुखों की ख़ाक पर की शब-नशीनी माह ने
दिन कभी निकला तो इक सूरज सर-ए-मदफ़न जला

तीरगी की आँधियाँ उठती रहीं हर नूर से
इक चराग़ ऐसा है सीने में कि बे-रोग़न जला

रफ़्ता रफ़्ता हो गए दस्त-ए-तलब अहल-ए-जुनूँ
रास्तों पर सब लिए बैठे हैं इक दामन जला

घुट के रह सकती थी कब तक आतिश-ए-रंग-ए-बहार
ज़र्ब-ए-मौसम भी कुछ ऐसी थी कि सब गुलशन जला

जल गया तो क्या हुआ आख़िर तो मैं कुंदन हुआ
हम-नशीं दामन की क्या जब मन जला दामन जला