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अब जल्द ये बे-आबी-ए-मौसम की बला जाए | शाही शायरी
ab jald ye be-abi-e-mausam ki bala jae

ग़ज़ल

अब जल्द ये बे-आबी-ए-मौसम की बला जाए

महशर बदायुनी

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अब जल्द ये बे-आबी-ए-मौसम की बला जाए
अश्जार की फ़रियाद से सैलाब न आ जाए

इतना भी लहू को न जुनूँ-ख़ेज़ किया जाए
फूटे रग-ए-गुल से तो रग-ए-संग में आ जाए

बारिश है तो ऐसी कि लरज़ जाए ज़मीं भी
पानी है कि मिट्टी को भी तलवार बना जाए

लोग ऐसे कि सीने की कपट शीशे पे लिख दें
हम ऐसे कि पत्थर को भी पत्थर न कहा जाए

इतना भी न हो सेहन कि दर तक मैं पहुँच कर
दर खोलूँ तो दरवेश-ए-दुआ-गो ही चला जाए

अपना ही लहू क़ातिल-ए-तहज़ीब-ओ-नसब है
इस शहर में किस किस से ख़बर-दार रहा जाए