अब जाम निगाहों के नशा क्यूँ नहीं देते
अब बोल मोहब्बत के मज़ा क्यूँ नहीं देते
तुम खोल के ज़ुल्फ़ों को उड़ा क्यूँ नहीं देते
तुम शान घटाओं की घटा क्यूँ नहीं देते
इक घूँट की उम्मीद समुंदर से नहीं जब
फिर आग समुंदर में लगा क्यूँ नहीं देते
है मुंतज़िर-ए-हश्र बहुत देर से दुनिया
घुंघरू तिरे पैरों के सदा क्यूँ नहीं देते
ये धूप रहेगी तो ये रुस्वाई करेगी
सूरज को गुनहगार बुझा क्यूँ नहीं देते
तुम दूसरे लोगों पे न रक्खा करो इल्ज़ाम
हर बात में तुम मेरी ख़ता क्यूँ नहीं देते
क़ातिल का है क्या नाम ये सब पूछ रहे हैं
क्या हम भी हैं हमनाम बता क्यूँ नहीं देते
तुम को मिरे अंदाज़-ए-वफ़ा से है शिकायत
तुम मुझ को वफ़ा कर के दिखा क्यूँ नहीं देते
जो लोग 'अलीम' अपनी जगह मीर बने हैं
अशआ'र को वो तर्ज़-ए-अदा क्यूँ नहीं देते
ग़ज़ल
अब जाम निगाहों के नशा क्यूँ नहीं देते
अलीम उस्मानी