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अब इस से और इबारत नहीं कोई सादी | शाही शायरी
ab is se aur ibarat nahin koi sadi

ग़ज़ल

अब इस से और इबारत नहीं कोई सादी

सय्यद तम्जीद हैदर तम्जीद

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अब इस से और इबारत नहीं कोई सादी
कि मेरा ख़ास हुनर भी रहा ख़ुदा-दादी

ख़ुदा की याद है ख़ल्वत में इस लिए बेहतर
कि ख़ुद को जानेगा तन्हाइयों में फ़रियादी

तुम उस के बंदे बनो वो कि जो दिखाई न दे
इसी में पिन्हाँ है इंसान रम्ज़-ए-आज़ादी

वो जाने वाले हों हाज़िर कि आने वाले हों
सब एक ख़त में खड़े हैं ब-क़ैद-ए-अबआ'दी

बता शराफ़त-ए-दुनिया बता कि खुल जाए
करेगा कब तलक इस दिल में ख़ाना-दामादी

ये वहम फ़हम-ए-हक़ीक़त नहीं हक़ीक़त है
कि बस हक़ीक़त-ए-दुनिया है गिर्या-ए-शादी

ये शर्क़-ओ-ग़र्ब के ऊँचे पहाड़ ख़ामी हैं
हक़ीक़तन मुझे हासिल है जिस्म-ए-फ़ौलादी

हुआ न कोई मिरी ख़ू से ख़ातिर-आशुफ़्ता
मिरा वजूद है मिस्दाक़-ए-ख़ाना-आबादी

रुके थमे न यहीं तक नया सफ़र 'तमजीद'
दिखाए किल्क-ए-सुख़न आगे और उस्तादी