अब गुज़ारा नहीं उस शोख़ के दर पर अपना
जिस के घर को ये समझते थे कि है घर अपना
कूचा-ए-दहर में ग़ाफ़िल न हो पाबंद-ए-नशिस्त
रहगुज़र में कोई करता नहीं बिस्तर अपना
ग़म-ज़दा उठ गए दुनिया ही से हम आख़िर आह
ज़ानू-ए-ग़म से व-लेकिन न उठा सर अपना
देखें क्या लहजा-ए-हस्ती को कि जूँ आब-ए-रवाँ
याँ ठहरना नज़र आता नहीं दम भर अपना
गर मलूँ मैं कफ़-ए-अफ़्सोस तो हँसता है वो शोख़
हाथ में हाथ किसी शख़्स के दे कर अपना
वाए क़िस्मत कि रहे लोग भी उस पास न वो
ज़िक्र लाते थे किसी ढब से जो अक्सर अपना
ज़बह करना था तो फिर क्यूँ न मिरी गर्दन पर
ज़ोर से फेर दिया आप ने ख़ंजर अपना
नीम बिस्मिल ही चले छोड़ के तुम क्यूँ प्यारे
ज़ोर ये तुम ने दिखाया हमें जौहर अपना
क्या करें दिल जो कहे में हो तो हम ऐ 'जुरअत'
न कहीं जाएँ कि है सब से भला घर अपना
ग़ज़ल
अब गुज़ारा नहीं उस शोख़ के दर पर अपना
जुरअत क़लंदर बख़्श