आया ही नहीं कोई बोझ अपना उठाने को
कब तक मैं छुपा रखता इस ख़्वाब-ख़ज़ाने को
देखा नहीं रुख़ करते जिस तर्फ़ ज़माने को
जी चाहता है अक्सर उस सम्त ही जाने को
ये शग़्ल-ए-ज़बानी भी बे-सर्फ़ा नहीं आख़िर
सौ बात बनाता हूँ इक बात बनाने को
इस कुंज-ए-तबीअत की मुमकिन है हवा बदले
झोंका कोई आ जाए पत्ते ही उड़ाने को
राज़ी न हुआ मैं भी मानूस मनाज़िर पर
तय्यार न था वो भी कुछ और दिखाने को
जैसा कि समझते हो वैसा तो नहीं कुछ भी
ये सारा तमाशा है इक वहम मिटाने को
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ग़ज़ल
आया ही नहीं कोई बोझ अपना उठाने को
अहमद महफ़ूज़