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आवाज़ दे के ख़ुद को बुलाना पड़ा मुझे | शाही शायरी
aawaz de ke KHud ko bulana paDa mujhe

ग़ज़ल

आवाज़ दे के ख़ुद को बुलाना पड़ा मुझे

मुनीर सैफ़ी

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आवाज़ दे के ख़ुद को बुलाना पड़ा मुझे
अपनी मदद को आप ही आना पड़ा मुझे

मुझ से तुम्हारे अक्स को करता था बद-गुमाँ
आईना दरमियाँ से हटाना पड़ा मुझे

फिर इस के ब'अद जुरअत-ए-गिर्या नहीं हुई
इक अश्क ख़ाक से जो उठाना पड़ा मुझे

फिर यूँ हुआ कि झूट की आदत सी हो गई
फिर यूँ हुआ कि सच को छुपाना पड़ा मुझे

पानी क़ुबूल ही नहीं करता था मेरी लाश
दरिया को अपना नाम बताना पड़ा मुझे

मेहमान आ गया था सो खाने की मेज़ पर
जलता हुआ चराग़ बुझाना पड़ा मुझे

धरती के ज़र्फ़ का हुआ अंदाज़ा जब 'मुनीर'
कुछ रोज़ अपना बोझ उठाना पड़ा मुझे