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आवार्गान-ए-शौक़ सभी घर के हो गए | शाही शायरी
aawargan-e-shauq sabhi ghar ke ho gae

ग़ज़ल

आवार्गान-ए-शौक़ सभी घर के हो गए

रज़ी अख़्तर शौक़

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आवार्गान-ए-शौक़ सभी घर के हो गए
इक हम ही हैं कि कूचा-ए-दिलबर के हो गए

फिर यूँ हुआ कि तुझ से बिछड़ना पड़ा हमें
फिर यूँ लगा कि शहर समुंदर के हो गए

कुछ दाएरे तग़य्युर-ए-दुनिया के साथ साथ
ऐसे खिंचे कि एक ही मेहवर के हो गए

उस शहर की हवा में है ऐसा भी इक फ़ुसूँ
जिस जिस को छू गई सभी पत्थर के हो गए

सूरज ढला ही था कि वो साए बढ़े कि 'शौक़'
कम क़ामतान-ए-शहर बराबर के हो गए