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आवारगान-ए-सहरा कू-ए-सनम न ढूँडें | शाही शायरी
aawargam-e-sahra ku-e-sanam na DhunDen

ग़ज़ल

आवारगान-ए-सहरा कू-ए-सनम न ढूँडें

मतीन सरोश

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आवारगान-ए-सहरा कू-ए-सनम न ढूँडें
जल्वों की वो बहारें ज़ुल्फ़ों के ख़म न ढूँडें

ऐ शहर-ए-संग तुझ में ज़ख़्मों की क्या कमी है
तेग़-ए-अदा-ए-जल्वा बेहतर है हम न ढूँडें

वो आबरू-ए-वहशत लाएँ तो अब कहाँ से
वो जन्नत-ए-तमन्ना वो दश्त-ए-ग़म न ढूँडें

हासिल न होगा कुछ भी जुज़ दाग़-ओ-दर्द-ए-इबरत
अहल-ए-वफ़ा हमारा नक़्श-ए-क़दम न ढूँडें

मक़्सद है सिर्फ़ इतना वा'दों की चाँदनी का
ख़्वाब-ए-सहर तो देखें ता'बीर हम न ढूँडें

हम बे-नियाज़ गुज़रे शोहरत की साज़िशों से
नाम-ओ-निशाँ हमारा अहल-ए-क़लम न ढूँडें

जाँ दी 'सरोश' हम ने राह-ए-ख़ुलूस-ए-ग़म में
फ़र्द-ए-अमल हमारी दैर-ओ-हरम न ढूँडें