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आवारा-ए-ग़ुर्बत हूँ ठिकाना नहीं मिलता | शाही शायरी
aawara-e-ghurbat hun Thikana nahin milta

ग़ज़ल

आवारा-ए-ग़ुर्बत हूँ ठिकाना नहीं मिलता

ख़ुर्शीद रिज़वी

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आवारा-ए-ग़ुर्बत हूँ ठिकाना नहीं मिलता
नावक हूँ मुझे कोई निशाना नहीं मिलता

जिन लोगों में रहता हूँ मैं उन में से नहीं हूँ
हूँ कौन मुझे अपना ज़माना नहीं मिलता

दीवार तो इस दौर में मिलती है ब-हर-गाम
लेकिन तह-ए-दीवार ख़ज़ाना नहीं मिलता

मुद्दत से है अश्कों का तलातुम पस-ए-मिज़्गाँ
रोने के लिए कोई बहाना नहीं मिलता

मुद्दत से तमन्ना है कि ये बोझ उतारें
मुद्दत से कोई दोस्त पुराना नहीं मिलता

है रख़्श सुबुक-सैर बहुत उम्र-ए-रवाँ का
गिर जाए कोई शय तो उठाना नहीं मिलता