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आसमाँ पर अब्र-पारे का सफ़र मेरे लिए | शाही शायरी
aasman par abr-pare ka safar mere liye

ग़ज़ल

आसमाँ पर अब्र-पारे का सफ़र मेरे लिए

वज़ीर आग़ा

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आसमाँ पर अब्र-पारे का सफ़र मेरे लिए
ख़ाक पर महका हुआ छोटा सा घर मेरे लिए

लफ़्ज़ की छागल जो चहके ख़ाक-दाँ आबाद हो
वज्द में आने लगें सारे शजर मेरे लिए

दूर तक उड़ते हुए जुगनू तिरी आवाज़ के
दूर तक रेग-ए-रवाँ पर इक नगर मेरे लिए

आश्ना नज़रों से देखें रात भर तारे तुझे
घूरती आँखों की ये बस्ती मगर मेरे लिए

ले गई है सारी ख़ुश्बू छीन कर ठंडी हवा
पत्तियाँ बिखरी पड़ी हैं ख़ाक पर मेरे लिए

बंद उस ने कर लिए थे घर के दरवाज़े अगर
फिर खुला क्यूँ रह गया था एक दर मेरे लिए

ख़ाक पर बिखरे हुए क़दमों-तले रौंदे हुए
तोहफ़तन लाई हवा मेरे ही पर मेरे लिए