आश्ना होते ही उस इश्क़ ने मारा मुझ को
न मिला बहर-ए-मोहब्बत का किनारा मुझ को
क्यूँ मिरे क़त्ल को तलवार बरहना की है
तेग़-ए-अबरू का तो काफ़ी है इशारा मुझ को
ख़ुद तिरे दाम में आया कोई अफ़्सूँ न चला
ऐ परी तू ने तो शीशे में उतारा मुझ को
मेरे ईसा का ज़रा देखना ए'जाज़-ए-ख़िराम
एक ठोकर से मिली उम्र दोबारा मुझ को
माने' दौलत-ए-दीदार न हो ऐ गिर्या
रुख़-ए-महबूब का करने दे नज़ारा मुझ को
दिल में इक गौहर-ए-ख़ूबी की मोहब्बत का है जोश
आज-कल भाता है दरिया का किनारा मुझ को
दम-दिलासे ही में टाला किए हर रोज़ आख़िर
सूखे घाट ऐ गुल-ए-तर ख़ूब उतारा मुझ को
नक़्द-ए-जाँ नज़्र करूँ तेरे फिर ऐ क़ातिल-ए-ख़ाल्क़
ज़िंदा कर दे अगर अल्लाह दोबारा मुझ को
पहलव-ए-यार को ग़ैरों से जो ख़ाली पाया
दिल-ए-बेताब ने क्या क्या न उभारा मुझ को
मैं यहाँ मुंतज़िर-ए-वादा रहा लेकिन वो
रह गए और कहीं दे के सहारा मुझ को
आख़िर इंसान हूँ पत्थर का तो रखता नहीं दिल
ऐ बुतो इतना सताओ न ख़ुदा-रा मुझ को
अपने बेगाने से अब मुझ को शिकायत न रही
दुश्मनी कर के मिरे दोस्त ने मारा मुझ को
फंदे में फँस के मैं उस के न हुआ फिर जाँ-बर
तार-ए-गेसू ने तिरे मार उतारा मुझ को
उन को सूझा न ज़रा पस्त-ओ-बुलंद उल्फ़त
ग़ैर से चिढ़ गए नज़रों से उतारा मुझ को
सदमा-ए-सोहबत-ए-अग़्यार न उठेगा कभी
और जो ज़ुल्म करो सब हैं गवारा मुझ को
शाद उस से हों कि इस क़ातिल-ए-आलम ने ख़ुद आज
कह के ओ आशिक़-ए-नाशाद पुकारा मुझ को
जाँ दी इश्क़ में उस हूर के मैं ने जो 'क़लक़'
क़ब्र में आ के फ़रिश्तों ने उतारा मुझ को
ग़ज़ल
आश्ना होते ही उस इश्क़ ने मारा मुझ को
अरशद अली ख़ान क़लक़