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आशिक़ तो मिलेंगे तुझे इंसाँ न मिलेगा | शाही शायरी
aashiq to milenge tujhe insan na milega

ग़ज़ल

आशिक़ तो मिलेंगे तुझे इंसाँ न मिलेगा

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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आशिक़ तो मिलेंगे तुझे इंसाँ न मिलेगा
मुझ सा तो कोई बंदा-ए-फ़रमाँ न मिलेगा

हूँ मुंतज़िर-ए-लुत्फ़ खड़ा कब से इधर देख
क्या मुझ को दिल ऐ तुर्रा-ए-जानाँ न मिलेगा

कहने को मुसलमाँ हैं सभी काबे में लेकिन
ढूँडोगे अगर एक मुसलमाँ न मिलेगा

नासेह इसे सीना है तो अब सी ले वगरना
फिर फ़स्ल-ए-गुल आए ये गरेबाँ न मिलेगा

रहने के लिए हम से गुनहगारों के या रब
क्या शहर-ए-अदम में कोई ज़िंदाँ न मिलेगा

होने की नहीं तेरी ख़ुशी सर्व-ख़िरामाँ
ता ख़ाक में ये बे-सर-ओ-सामाँ न मिलेगा

दिल उस से तू माँगे है अबस 'मुसहफ़ी' हर दम
क्या फ़ाएदा इसरार का नादाँ न मिलेगा