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आशिक़-ए-ज़ार हूँ जुज़ इश्क़ मुझे काम नहीं | शाही शायरी
aashiq-e-zar hun juz ishq mujhe kaam nahin

ग़ज़ल

आशिक़-ए-ज़ार हूँ जुज़ इश्क़ मुझे काम नहीं

शाह आसिम

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आशिक़-ए-ज़ार हूँ जुज़ इश्क़ मुझे काम नहीं
तालिब-ए-कुफ़्र नहीं ताबे-ए-इस्लाम नहीं

ग़म नहीं कुछ भी ख़राबी से है हम मस्तों को
गर्दिश-ए-जाम है ये गर्दिश-ए-अय्याम नहीं

क़त्ल-ए-आशिक़ के लिए एक अदा बस है तिरी
बिस्मिल-ए-इश्क़ को कुछ हाजत-ए-समसाम नहीं

क्या हुआ अब्र भी है मय भी है साग़र भी है
है ये सब हेच अगर साक़ी-ए-गुलफ़ाम नहीं

देख कर मुझ को तुझे क्यूँ है तहय्युर नासेह
मशरब-ए-इश्क़ है ये मज़हब-ए-इस्लाम नहीं

ख़ाना-ए-नाज़ है वो बल्कि चराग़-ए-मुर्दा
दिल के आईने में गर रू-ए-दिल-आराम नहीं

इश्क़-ए-ख़ादिम से हुआ है दिल-ए-'आसिम' मामूर
इस लिए दीन-ओ-दुनिया से उसे काम नहीं