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आशिक़-ए-सोख़्ता-दिल ख़त्त-ए-सनम दोनों एक | शाही शायरी
aashiq-e-soKHta-dil KHatt-e-sanam donon ek

ग़ज़ल

आशिक़-ए-सोख़्ता-दिल ख़त्त-ए-सनम दोनों एक

क़ासिम अली ख़ान अफ़रीदी

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आशिक़-ए-सोख़्ता-दिल ख़त्त-ए-सनम दोनों एक
जिस तरह सुनिए जुदा शादी-ओ-ग़म दोनों एक

दोनों बातिन में अगर एक हैं लेकिन कोई
आब-ओ-आतिश नहीं रखता है बहम दोनों एक

है जुदा सज्दे की जा हिन्दू मुसलमाँ की मगर
फ़हम वालों के तईं दैर-ओ-हरम दोनों एक

कुहल करते हैं हम आँखों में बराबर दोनो
सुरमा-ए-कोर को और ख़ाक-ए-क़दम दोनों एक

जब फँसा ज़ुल्फ़ में जा दिल न रहा नंग-ओ-हया
ताक़ पर रखिए वहाँ नंग-ओ-शरम दोनों एक

बार-ए-ग़म हिज्र पड़ा सर पे किसी के उस दम
ख़ाक में दीजे मिला अक़ल-ओ-फ़हम दोनों एक

एवज़-ए-हिज्र न लूँ ऐश तमाम आलम का
है अज़ल से मुझे फ़रमान-ए-हकम दोनों एक

दिल में अरमाँ न रहा बाक़ी जो चाहा सो किया
सैर दुनिया की भी और सैर-ए-अदम दोनों एक

यार आग़ोश में अपने है मुहय्या हर-दम
बस है ये मेरे तईं जाह-ओ-हशम दोनों एक

आरज़ू 'क़ासिम-अली' दिल में नहीं कुछ लेकिन
चाहिए अपने तईं फ़ज़्ल-ओ-करम दोनों एक