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आप की आँख से गहरा है मिरी रूह का ज़ख़्म | शाही शायरी
aap ki aankh se gahra hai meri ruh ka zaKHm

ग़ज़ल

आप की आँख से गहरा है मिरी रूह का ज़ख़्म

मोहसिन नक़वी

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आप की आँख से गहरा है मिरी रूह का ज़ख़्म
आप क्या सोच सकेंगे मिरी तन्हाई को

मैं तो दम तोड़ रहा था मगर अफ़्सुर्दा हयात
ख़ुद चली आई मिरी हौसला-अफ़ज़ाई को

लज़्ज़त-ए-ग़म के सिवा तेरी निगाहों के बग़ैर
कौन समझा है मिरे ज़ख़्म की गहराई को

मैं बढ़ाऊँगा तिरी शोहरत-ए-ख़ुश्बू का निखार
तू दुआ दे मिरे अफ़्साना-ए-रुसवाई को

वो तो यूँ कहिए कि इक क़ौस-ए-क़ुज़ह फैल गई
वर्ना मैं भूल गया था तिरी अंगड़ाई को