आप का कोई सफ़र बे-सम्त बे-मंज़िल न हो
ज़िंदगी ऐसी न जीना जिस का मुस्तक़बिल न हो
आज के शहज़ादे सब कुछ चाहते हैं इस तरह
सख़्ती-ए-मौसम भी कम हो राह भी मुश्किल न हो
तेरा सरमाया तिरी दौलत यही इक चीज़ है
एक पल किरदार की ता'मीर से ग़ाफ़िल न हो
उस ने ख़ुशियों के ख़ज़ाने वा किए मुझ पर मगर
बे-तहाशा रौशनी की तीरगी हासिल न हो
अपनी क़ुर्बत के कुछ ऐसे नक़्श दिल पर छोड़ दे
वो भी चाहे तो मोहब्बत का असर ज़ाइल न हो
ये समझ लो बे-हिसी उस का मुक़द्दर बन चुकी
ऐ 'अनीस' अपनी ग़लत-कारी पे जो क़ाएल न हो
ग़ज़ल
आप का कोई सफ़र बे-सम्त बे-मंज़िल न हो
अनीस देहलवी