आप ही अपना मैं दुश्मन हो गया
तप गया सोना तो कुंदन हो गया
और निखरा सुब्ह-ए-काज़िब का सुहाग
ख़त्म जब तारों का ईंधन हो गया
किस से पूछूँ खो गई सीता कहाँ
बन का हर साया ही रावन हो गया
जब दर-ओ-दीवार चमकाए गए
घर का घर ही उन का दर्पन हो गया
बद-नसीबी क़ाफ़िले की देखिए
जो बना रहबर वो रहज़न हो गया
वो नहीं तो उन का हर लम्हा ख़याल
हर-नफ़स पर एक उलझन हो गया
माँगते फिरते हैं गुल ख़ारों से छाँव
क्या से क्या दस्तूर-ए-गुलशन हो गया
फिर न बिछड़े इस तरह से मिल गए
जैसे दो सायों का बंधन हो गया
बे-ख़याली में यूँही फैला था हाथ
जब छुआ तुम ने तो दामन हो गया
जाने क्यूँ गुम हो गई बरखा की धूप
रुख़ मिरा जब सू-ए-चिलमन हो गया
ग़ज़ल
आप ही अपना मैं दुश्मन हो गया
वजद चुगताई