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आओ काबे से उठें सू-ए-सनम-ख़ाना चलें | शाही शायरी
aao kabe se uThen su-e-sanam-KHana chalen

ग़ज़ल

आओ काबे से उठें सू-ए-सनम-ख़ाना चलें

जोश मलीहाबादी

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आओ काबे से उठें सू-ए-सनम-ख़ाना चलें
ताबा-ए-फ़क़्र कहे सवलत-ए-शाहाना चलें

काँप उठे बारगह-ए-सर-ए-अफ़ाफ़-ए-मलकूत
यूँ मआसी का लुंढाते हुए पैमाना चलें

आओ ऐ ज़मज़मा-संजान-ए-सरा पर्दा-ए-गुल
ब-हवा-ए-नफ़स-ए-ताज़ा-ए-जानाना चलें

गिर्या-ए-नीम-शब ओ आह-ए-सहर-गाही को
चंग ओ बरबत पे नचाते हुए तुरकाना चलें

ता न महसूस हो वामांदगी-ए-राह-ए-दराज़
ज़ुल्फ़-ए-ख़ूबाँ का सुनाते हुए अफ़्साना चलें

फेंक कर सुब्हा ओ सज्जादा ओ दस्तार ओ कुलाह
ब रबाब ओ दफ़ ओ तम्बूरा ओ पैमाना चलें

नग़्मा ओ साग़र ओ ताऊस ओ ग़ज़ल के हमराह
सू-ए-ख़ुम-ख़ाना पय-ए-सज्दा-ए-रिन्दाना चलें

ख़ुश्क ज़र्रों पे मचल जाए शमीम ओ तसनीम
सब्त करते हुए यूँ लग़्ज़िश-ए-मस्ताना चलें

दामन-ए-'जोश' में फिर भर के मता-ए-कौनैन
ख़िदमत-ए-पीर-ए-मुग़ाँ में पय-ए-नज़राना चलें