आँखों पे वो ज़ुल्फ़ आ रही है
काली जादू जगा रही है
ज़ंजीर जो खड़खड़ा रही है
वहशत क्या ग़ुल मचा रही है
लैला ख़ाका उड़ा रही है
मजनूँ को हवा बता रही है
ज़ुल्फ़ें वो परी हिला रही है
दीवानों की शामत आ रही है
पामाल-ए-ख़िराम हो चुके दफ़्न
पिसने को बस अब हिना रही है
हैं चाल से उन की ज़िंदा दरगोर
मुर्दों पे क़यामत आ रही है
दिल ने उल्फ़त से ज़क उठाई
आँखों देखा रुला रही है
गोया होने दे बे-ज़बानी
क्यूँ मेरा गला दबा रही है
'आग़ा' साहब गली में उन की
इक हूर तुम्हें बुला रही है
ग़ज़ल
आँखों पे वो ज़ुल्फ़ आ रही है
आग़ा अकबराबादी