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आँखों को अश्क-बार किया क्या बुरा किया | शाही शायरी
aankhon ko ashk-bar kiya kya bura kiya

ग़ज़ल

आँखों को अश्क-बार किया क्या बुरा किया

नज़र बर्नी

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आँखों को अश्क-बार किया क्या बुरा किया
यूँ ग़म को आश्कार किया क्या बुरा किया

इक उम्र इंतिज़ार किया क्या बुरा किया
वा'दे का ए'तिबार किया क्या बुरा किया

जब वस्ल-ए-यार ज़ीस्त का उनवाँ न बन सका
ग़म को गले का हार किया क्या बुरा किया

सेहन-ए-चमन में धूम है फ़स्ल-ए-बहार की
दामन को तार तार किया क्या बुरा किया

ऐश-ओ-निशात से रहे महरूम उम्र-भर
तन्हाइयों से प्यार किया क्या बुरा किया

हम ने किसी के हुस्न-ए-तबस्सुम को देख कर
क़ल्ब-ओ-जिगर निसार किया क्या बुरा किया

दिल लूटने के बा'द 'नज़र' कह रहे हैं वो
हाँ हम ने बे-क़रार किया क्या बुरा किया