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आँखें जिन को देख न पाएँ सपनों में बिखरा देना | शाही शायरी
aankhen jinko dekh na paen sapnon mein bikhra dena

ग़ज़ल

आँखें जिन को देख न पाएँ सपनों में बिखरा देना

रईस फ़रोग़

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आँखें जिन को देख न पाएँ सपनों में बिखरा देना
जितने भी हैं रूप तुम्हारे जीते-जी दिखला देना

रात और दिन के बीच कहीं पर जागे सोए रस्तों में
मैं तुम से इक बात कहूँगा तुम भी कुछ फ़रमा देना

अब की रुत में जब धरती को बरखा की महकार मिले
मेरे बदन की मिट्टी को भी रंगों में नहला देना

दिल दरिया है दिल सागर है इस दरिया इस सागर की
एक ही लहर का आँचल थामे सारी उमर बिता देना

हम भी लै को तेज़ करेंगे बूँदों की बौछार के साथ
पहला सावन झूलने वालो तुम भी पेंग बढ़ा देना

फ़स्ल तुम्हारी अच्छी होगी जाओ हमारे कहने से
अपने गाँव की हर गोरी को नई चुनरिया ला देना

ये मिरे पौदे ये मिरे पंछी ये मिरे प्यारे प्यारे लोग
मेरे नाम जो बादल आए बस्ती में बरसा देना

हिज्र की आग में ऐ री हवाओ दो जलते घर अगर कहीं
तन्हा तन्हा जलते हों तो आग में आग मिला देना

आज धनक में रंग न होंगे वैसे जी बहलाने को
शाम हुए पर नीले पीले कुछ बैलून उड़ा देना

आज की रात कोई बैरागन किसी से आँसू बदलेगी
बहते दरिया उड़ते बादल जहाँ भी हों ठहरा देना

जाते साल की आख़िरी शामें बालक चोरी करती हैं
आँगन आँगन आग जलाना गली गली पहरा देना

ओस में भीगे शहर से बाहर आते दिन से मिलना है
सुब्ह-तलक संसार रहे तो हम को जल्द जगा देना

नीम की छाँव में बैठने वाले सभी के सेवक होते हैं
कोई नाग भी आ निकले तो उस को दूध पिला देना

तेरे करम से या-रब सब को अपनी अपनी मुराद मिले
जिस ने हमारा दिल तोड़ा है उस को भी बेटा देना