आँखें जहाँ हों बंद अँधेरा वहीं से है
जागे हैं हम जहाँ से सवेरा वहीं से है
जिस जा से है शुरूअ' मिरा कुंज-ए-आरज़ू
साया भी नख़्ल-ए-ग़म का घनेरा वहीं से है
उजड़ा हुआ वो बाग़-ए-जहाँ हम जुदा हुए
आसेब-ए-ग़म का दिल पे बसेरा वहीं से है
दूर इक चराग़-ए-कुश्ता पड़ा है ज़मीन पर
शायद सितम की रात का डेरा वहीं से है

ग़ज़ल
आँखें जहाँ हों बंद अँधेरा वहीं से है
फ़रासत रिज़वी