आँख से ख़्वाब का रिश्ता नहीं रहने देती
याद उस की मुझे तन्हा नहीं रहने देती
लज़्ज़त-ए-दर-ब-दरी में बड़ी वुसअ'त है कि ये
दर-ओ-दीवार का झगड़ा नहीं रहने देती
घर हो या रौनक़-ए-बाज़ार कहीं भी जाऊँ
बे-क़रारी तो किसी जा नहीं रहने देती
बंद कर लूँ तो अजब नक़्श नज़र आते हैं
आँख महरूम-ए-तमाशा नहीं रहने देती
ख़्वाहिश-ए-ज़र की हवा दिल के सियह-ख़ाने में
इक दिया है जिसे जलता नहीं रहने देती
ग़ज़ल
आँख से ख़्वाब का रिश्ता नहीं रहने देती
फ़रासत रिज़वी