आँख से आँसू ढलका होता
तो फिर सूरज उभरा होता
कहते कहते ग़म का फ़साना
कटती रात सवेरा होता
कश्ती क्यूँ साहिल पर डूबी
मौजें होतीं दरिया होता
जो गरजा प्यासी धरती पर
काश वो बादल बरसा होता
फूलों में छुपने वालों को
काँटों में तो ढूँडा होता
तुझ को पाना सहल नहीं है
सहल जो होता तो क्या होता
अपने सौ बेगाने होते
एक यगाना अपना होता
पूछ 'ज़िया' ये अहल-ए-दिल से
प्यार ना होता तो क्या होता
ग़ज़ल
आँख से आँसू ढलका होता
ज़िया फ़तेहाबादी