आँख में ख़्वाब नहीं ख़्वाब का सानी भी नहीं
कुंज-ए-लब में कोई पहली सी कहानी भी नहीं
ढूँढता फिरता हूँ इक शहर-ए-तख़य्युल में तुझे
और मिरे पास तिरे घर की निशानी भी नहीं
बात जो दिल में धड़कती है मोहब्बत की तरह
उस से कहनी भी नहीं उस से छुपानी भी नहीं
आँख-भर नींद में क्या ख़्वाब समेटें कि अभी
चाँदनी-रात नहीं रात-की-रानी भी नहीं
लैली-ए-हुस्न ज़रा देख तिरे दश्त-नज़ाद
सर-ब-सर ख़ाक हैं और ख़ाक उड़ानी भी नहीं
कच्चे ईंधन में सुलगना है और इस शर्त के साथ
तेज़ करनी भी नहीं आग बुझानी भी नहीं
अब तो यूँ है कि तिरे हिज्र में रोने के लिए
आँख में ख़ून तो क्या ख़ून सा पानी भी नहीं
ग़ज़ल
आँख में ख़्वाब नहीं ख़्वाब का सानी भी नहीं
अय्यूब ख़ावर