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आँख की राह से बुझते हुए लम्हे उतरे | शाही शायरी
aankh ki rah se bujhte hue lamhe utre

ग़ज़ल

आँख की राह से बुझते हुए लम्हे उतरे

हसन निज़ामी

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आँख की राह से बुझते हुए लम्हे उतरे
अक़रबा जितने थे कश्ती के वो सारे उतरे

उस से कहते हो कि फिर लौटना होगा छत पर
साँस की लय को जो थामे हुए ज़ीने उतरे

छा गई बच्चों के चेहरे पे नई हरियाली
आज फिर पेड़ों से आँगन में परिंदे उतरे

लोग साहिल पे तमाशाई बने बैठे रहे
बीच दरिया में फ़क़त हम ही अकेले उतरे

चीख़ निकली न कोई आह-ओ-फ़ुग़ाँ की मैं ने
यूँ तो सीने में कई तीर नुकीले उतरे