'आली' जिस का फ़न्न-ए-सुख़न में इक अंदाज़ निराला था
नक़्द-ए-सुख़न में ज़िक्र ये आया दोहे पढ़ने वाला था
जाने क्यूँ लोगों की नज़रें तुझ तक पहुँचें हम ने तो
बरसों ब'अद ग़ज़ल की रौ में इक मज़मून निकाला था
क्या वो घटा तिरे घर से उट्ठी क्या वो तू ने भेजी थी
बूँदें रौशन रौशन थीं और बादल काला काला था
अजनबियों से धोके खाना फिर भी समझ में आता है
इस के लिए क्या कहते हो वो शख़्स तो देखा-भाला था
हम न मिले और जब भी मिले तो दोनों ने इक़रार किया
हाँ वो वादा ऐसा था जो पूरा होने वाला था
तपती धूपों में भी आ कर अपनी याद दिलाते हैं
चाँद-नगर के 'इंशा'-साहिब आले जिन का हाला था
ग़ज़ल
'आली' जिस का फ़न्न-ए-सुख़न में इक अंदाज़ निराला था
जमीलुद्दीन आली