आलम से फ़ुज़ूँ तेरा आलम नज़र आता है 
हर हुस्न मुक़ाबिल में कुछ कम नज़र आता है 
चमका है मुक़द्दर क्या इस तीरा-नसीबी का 
सूरज भी शब-ए-ग़म का परचम नज़र आता है 
है तेरी तमन्ना का बस एक भरम क़ाएम 
अब वर्ना मिरे दिल में क्या दम नज़र आता है 
तन्हा नहीं रह पाता सहरा में भी दीवाना 
जब ख़ाक उड़ाता है आलम नज़र आता है 
ऐ 'ज़ेब' मुझे तेरी तख़्ईल की मौजों में 
हुश्यारी ओ मस्ती का संगम नज़र आता है
        ग़ज़ल
आलम से फ़ुज़ूँ तेरा आलम नज़र आता है
ज़ेब ग़ौरी

