आलम में हरे होंगे अश्जार जो मैं रोया
गुलचीं नहीं सींचेंगे गुलज़ार जो मैं रोया
बरसेगा जो अब्र आ कर खुल जाएगा दम भर में
आँसू नहीं थमने के ऐ यार जो मैं रोया
रोओगे झरोके में तुम हिचकियाँ ले ले कर
ऐ यार कभी ज़ेर-ए-दीवार जो मैं रोया
ज़ख़्मी हूँ तो होने दो क्यूँ यार बिसोरूँ मैं
क्या बात रही खा कर तलवार जो मैं रोया
हूँ मुस्तइद-ए-रिक़्क़त फ़रहाद मुझे बहला
ले डूबेंगे तुझ को भी कोहसार जो मैं रोया
मजनूँ ने कहा जाओ वहशत उन्हें दिखलाओ
बैठा हुआ सहरा में बे-कार जो मैं रोया
रहम आ ही गया उन को कटवा दे मिरी बेड़ी
ज़िंदान में चिल्ला कर इक बार जो मैं रोया
की ग़ुस्से के मारे फिर उस ने न निगह सीधी
इन अँखड़ियों का हो कर बीमार जो मैं रोया
बेताबी ओ ज़ारी पर मेरी उन्हें रहम आया
दिखला ही दिया मुझ को दीदार जो मैं रोया
आराम वो करते हैं रुलवा न मुझे ऐ दिल
ठहरेंगे न वो हो कर बेदार जो मैं रोया
आए थे ब-मुश्किल वो लाए थे 'शरफ़' उन को
फिर उठ गए वो हो कर बेदार जो मैं रोया
ग़ज़ल
आलम में हरे होंगे अश्जार जो मैं रोया
आग़ा हज्जू शरफ़