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आलम में हरे होंगे अश्जार जो मैं रोया | शाही शायरी
aalam mein hare honge ashjar jo main roya

ग़ज़ल

आलम में हरे होंगे अश्जार जो मैं रोया

आग़ा हज्जू शरफ़

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आलम में हरे होंगे अश्जार जो मैं रोया
गुलचीं नहीं सींचेंगे गुलज़ार जो मैं रोया

बरसेगा जो अब्र आ कर खुल जाएगा दम भर में
आँसू नहीं थमने के ऐ यार जो मैं रोया

रोओगे झरोके में तुम हिचकियाँ ले ले कर
ऐ यार कभी ज़ेर-ए-दीवार जो मैं रोया

ज़ख़्मी हूँ तो होने दो क्यूँ यार बिसोरूँ मैं
क्या बात रही खा कर तलवार जो मैं रोया

हूँ मुस्तइद-ए-रिक़्क़त फ़रहाद मुझे बहला
ले डूबेंगे तुझ को भी कोहसार जो मैं रोया

मजनूँ ने कहा जाओ वहशत उन्हें दिखलाओ
बैठा हुआ सहरा में बे-कार जो मैं रोया

रहम आ ही गया उन को कटवा दे मिरी बेड़ी
ज़िंदान में चिल्ला कर इक बार जो मैं रोया

की ग़ुस्से के मारे फिर उस ने न निगह सीधी
इन अँखड़ियों का हो कर बीमार जो मैं रोया

बेताबी ओ ज़ारी पर मेरी उन्हें रहम आया
दिखला ही दिया मुझ को दीदार जो मैं रोया

आराम वो करते हैं रुलवा न मुझे ऐ दिल
ठहरेंगे न वो हो कर बेदार जो मैं रोया

आए थे ब-मुश्किल वो लाए थे 'शरफ़' उन को
फिर उठ गए वो हो कर बेदार जो मैं रोया