आकाश की हसीन फ़ज़ाओं में खो गया
मैं इस क़दर उड़ा कि ख़लाओं में खो गया
कतरा रहे हैं आज के सुक़रात ज़हर से
इंसान मस्लहत की अदाओं में खो गया
शायद मिरा ज़मीर किसी रोज़ जाग उठे
ये सोच के मैं अपनी सदाओं में खो गया
लहरा रहा है साँप सा साया ज़मीन पर
सूरज निकल के दूर घटाओं में खो गया
मोती समेट लाए समुंदर से अहल-ए-दिल
वो शख़्स बे-अमल था दुआओं में खो गया
ठहरे हुए थे जिस के तले हम शिकस्ता-पा
वो साएबाँ भी तेज़ हवाओं में खो गया
ग़ज़ल
आकाश की हसीन फ़ज़ाओं में खो गया
कामिल बहज़ादी