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आज तो रोने को जी हो जैसे | शाही शायरी
aaj to rone ko ji ho jaise

ग़ज़ल

आज तो रोने को जी हो जैसे

राजेन्द्र मनचंदा बानी

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आज तो रोने को जी हो जैसे
फिर कोई आस बंधी हो जैसे

शहर में फिरता हूँ तन्हा तन्हा
आश्ना एक वही हो जैसे

हर ज़माने की सदा-ए-मातूब
मेरे सीने से उठी हो जैसे

ख़ुश हुए तर्क-ए-वफ़ा कर के हम
अब मुक़द्दर भी यही हो जैसे

इस तरह शब गए टूटी है उमीद
कोई दीवार गिरी हो जैसे

यास-आलूद है एक एक घड़ी
ज़र्द फूलों की लड़ी हो जैसे

मैं हूँ और वादा-ए-फ़र्दा तेरा
और इक उम्र पड़ी हो जैसे

बे-कशिश है वो निगाह-सद-लुत्फ़
इक मोहब्बत की कमी हो जैसे

क्या अजब लम्हा-ए-ग़म गुज़रा है
उम्र इक बीत गई हो जैसे