आज से पहले तिरे मस्तों की ये ख़्वारी न थी
मय बड़ी इफ़रात से थी फिर भी सरशारी न थी
एक हम क़द्रों की पामाली से रहते थे मलूल
शुक्र है यारों को ऐसी कोई बीमारी न थी
ज़ेहन की पर्वाज़ हो या शौक़ की रामिश-गरी
कोई आज़ादी न थी जिस में गिरफ़्तारी न थी
जोश था हंगामा था महफ़िल में तेरी क्या न था
इक फ़क़त आदाब-ए-महफ़िल की निगह-दारी न थी
उन की महफ़िल में नज़र आए सभी शो'ला-ब-कफ़
अपने दामन में मगर कोई भी चिंगारी न थी
कल इसी बस्ती में कुछ अहल-ए-वफ़ा होते तो थे
इस क़दर अहल-ए-हवस की गर्म-बाज़ारी न थी
हुस्न काफ़िर था अदा क़ातिल थी बातें सेहर थीं
और तो सब कुछ था लेकिन रस्म-ए-दिलदारी न थी
ग़ज़ल
आज से पहले तिरे मस्तों की ये ख़्वारी न थी
आल-ए-अहमद सूरूर