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आज इंकार न फ़रमाइए आप | शाही शायरी
aaj inkar na farmaiye aap

ग़ज़ल

आज इंकार न फ़रमाइए आप

रिन्द लखनवी

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आज इंकार न फ़रमाइए आप
शब की शब घर मिरे रह जाइए आप

जाइए घर को न घबराइए आप
हम न मर जाएँगे बस जाइए आप

खोल दो शौक़ से बंद अंगिया के
लेट कर साथ न शरमाइए आप

आते ही कहते हो मैं जाऊँगा
मैं भी आने का नहीं जाइए आप

ढूँढते फिरिए अगर ले के चराग़
मुझ सा आशिक़ जो कहीं पाइए आप

उम्र भर तो न क़दम-रंजा किया
आइए अब तो न तरसाइए आप

जान-ए-मुश्ताक़ लबों पर आई
कुछ वसिय्यत है वो सुन जाइए आप

दिल समझता नहीं मुझ से नासेह
आप से समझे तो समझाइए आप

साया-साँ शौक़ में उफ़्तां-ख़ेज़ाँ
साथ रहता हूँ जिधर जाइए आप

मैं दिखाऊँ जो जुनूँ की है सिफ़त
शान बे-रहमी की दिखलाइए आप

टुकड़े टुकड़े मैं गरेबाँ के करूँ
पुर्ज़े पुर्ज़े मिरे आड़ाइए आप

शाद हो रूह अगर ब'अद-ए-फ़ना
शम्-ओ-गुल गोर पे भिजवाइए आप

जान सदक़े करूँ क्या माल है जान
काट दूँ सर को जो फ़रमाइए आप

मुँह पे मुँह रक्खा तो बोले क्या ख़ूब
पहले मुँह अपना तो बनवाइए आप

ग़ैर कटने लगें बंध जाए हवा
मुझ से तुकल्ल अगर उड़वाइए आप

नाम तक लूँ न कभी हूँ वो बशर
अब अगर हूर भी बन जाइए आप

हाथ से 'रिन्द' को खोते हो अबस
कहीं ऐसा न हो पछताइए आप