आज भड़की रग-ए-वहशत तिरे दीवानों की
क़िस्मतें जागने वाली हैं बयाबानों की
फिर घटाओं में है नक़्क़ारा-ए-वहशत की सदा
टोलियाँ बंध के चलीं दश्त को दीवानों की
आज क्या सूझ रही है तिरे दीवानों को
धज्जियाँ ढूँढते फिरते हैं गरेबानों की
रूह-ए-मजनूँ अभी बेताब है सहराओं में
ख़ाक बे-वजह नहीं उड़ती बयाबानों की
उस ने 'एहसान' कुछ इस नाज़ से मुड़ कर देखा
दिल में तस्वीर उतर आई परी-ख़ानों की
ग़ज़ल
आज भड़की रग-ए-वहशत तिरे दीवानों की
एहसान दानिश