आइने में पस-ए-मंज़र का उभरना कैसा
झील जैसी तिरी आँखों में ये झरना कैसा
उम्र-भर साथ रहो तो कहीं महके आँगन
किसी ख़ुश्बू की तरह छू के गुज़रना कैसा
वो तो इक ख़्वाहिश-ए-नाकाम थी जो चीख़ पड़ी
बे-सबब अपनी ही आवाज़ से डरना कैसा
गर्द शीशों से हटाओ तो कोई बात बने
अंधे आईनों के आगे ये सँवरना कैसा
फेंक दो बार-ए-अलम कुछ तो सफ़र आसाँ हो
बोझ लादे हुए दुनिया से गुज़रना कैसा
ऐ मिरे शोर-ए-नफ़स बार-ए-समाअत से गुरेज़
नींद के वक़्त सदाओं का उभरना कैसा
गोश-ए-उम्मीद हुए जबकि सदाओं के असीर
फ़त्ह फिर कोह-ए-निदा का 'ज़िया' करना कैसा
ग़ज़ल
आइने में पस-ए-मंज़र का उभरना कैसा
ज़िया फ़ारूक़ी