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आइने में पस-ए-मंज़र का उभरना कैसा | शाही शायरी
aaine mein pas-e-manzar ka ubharna kaisa

ग़ज़ल

आइने में पस-ए-मंज़र का उभरना कैसा

ज़िया फ़ारूक़ी

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आइने में पस-ए-मंज़र का उभरना कैसा
झील जैसी तिरी आँखों में ये झरना कैसा

उम्र-भर साथ रहो तो कहीं महके आँगन
किसी ख़ुश्बू की तरह छू के गुज़रना कैसा

वो तो इक ख़्वाहिश-ए-नाकाम थी जो चीख़ पड़ी
बे-सबब अपनी ही आवाज़ से डरना कैसा

गर्द शीशों से हटाओ तो कोई बात बने
अंधे आईनों के आगे ये सँवरना कैसा

फेंक दो बार-ए-अलम कुछ तो सफ़र आसाँ हो
बोझ लादे हुए दुनिया से गुज़रना कैसा

ऐ मिरे शोर-ए-नफ़स बार-ए-समाअत से गुरेज़
नींद के वक़्त सदाओं का उभरना कैसा

गोश-ए-उम्मीद हुए जबकि सदाओं के असीर
फ़त्ह फिर कोह-ए-निदा का 'ज़िया' करना कैसा