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आइना सीना-ए-साहब-नज़राँ है कि जो था | शाही शायरी
aaina sina-e-sahab-nazaran hai ki jo tha

ग़ज़ल

आइना सीना-ए-साहब-नज़राँ है कि जो था

हैदर अली आतिश

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आइना सीना-ए-साहब-नज़राँ है कि जो था
चेहरा-ए-शाहिद-ए-मक़्सूद अयाँ है कि जो था

इश्क़-ए-गुल में वही बुलबुल का फ़ुग़ाँ है कि जो था
परतव-ए-मह से वही हाल-ए-कताँ है कि जो था

आलम-ए-हुस्न ख़ुदा-दाद-ए-बुताँ है कि जो था
नाज़-ओ-अंदाज़ बला-ए-दिल-ओ-जाँ है कि जो था

राह में तेरी शब-ओ-रोज़ बसर करता हूँ
वही मील और वही संग-ए-निशाँ है कि जो था

रोज़ करते हैं शब-ए-हिज्र को बेदारी में
अपनी आँखों में सुबुक ख़्वाब-ए-गिराँ है कि जो था

एक आलम में हो हर-चंद मसीहा मशहूर
नाम-ए-बीमार से तुम को ख़फ़क़ाँ है कि जो था

दौलत-ए-इश्क़ का गंजीना वही सीना है
दाग़-ए-दिल ज़ख़्म-ए-जिगर मोहर-ओ-निशाँ है कि जो था

नाज़-ओ-अंदाज़-ओ-अदा से तुम्हें शर्म आने लगी
आरज़ी हुस्न का आलम वो कहाँ है कि जो था

जाँ की तस्कीं के लिए हालत-ए-दिल कहते हैं
बे यक़ीनी का तिरी हम को गुमाँ है कि जो था

असर-ए-मंज़िल-ए-मक़्सूद नहीं दुनिया में
राह में क़ाफ़िला-ए-रेग-ए-रवाँ है कि जो था

दहन उस रू-ए-किताबी में है पर ना-पैदा
इस्म-ए-आज़म वही क़ुरआँ में निहाँ है कि जो था

काबा-ए-मद्द-ए-नज़र क़िबला-नुमा है ता-हाल
कू-ए-जानाँ की तरफ़ दिल निगराँ है कि जो था

कोह-ओ-सहरा-ओ-गुलिस्ताँ में फिरा करता है
मुतलाशी वो तिरा आब-ए-रवाँ है कि जो था

सोज़िश-ए-दिल से तसलसुल है वही आहों का
ऊद के जलने से मुजमिर में धुआँ है कि जो था

रात कट जाती है बातें वही सुनते सुनते
शम-ए-महफ़िल सनम-ए-चर्ब-ज़बाँ है कि जो था

पा-ए-ख़म मस्तों के हू-हक़ का जो आलम है सो है
सर-ए-मिंबर वही वाइ'ज़ का बयाँ है कि जो था

कौन से दिन नई क़ब्रें नहीं इस में बनतीं
ये ख़राबा वही इबरत का मकाँ है कि जो था

बे-ख़बर शौक़ से मेरे नहीं वो नूर-ए-निगाह
क़ासिद-ए-अश्क शब-ओ-रोज़ वहाँ है कि जो था

लैलतुल-क़द्र किनाया न शब-ए-वस्ल से हो
उस का अफ़्साना मियान-ए-रमज़ाँ है कि जो था

दीन-ओ-दुनिया का तलबगार हनूज़ 'आतिश' है
ये गदा साइल-ए-नक़्द-ए-दो-जहाँ है कि जो था