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आइना-ख़ाना करेंगे दिल-ए-नाकाम को हम | शाही शायरी
aaina-KHana karenge dil-e-nakaam ko hum

ग़ज़ल

आइना-ख़ाना करेंगे दिल-ए-नाकाम को हम

हैदर अली आतिश

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आइना-ख़ाना करेंगे दिल-ए-नाकाम को हम
फेरेंगे अपनी तरफ़ रू-ए-दिल-आराम को हम

शाम से सुब्ह तलक दाैर-ए-शराब आख़िर है
रोते हैं देख के ख़ंदाँ दहन-ए-जाम को हम

याद रखने की जगह है ये तिलिस्म-ए-हैरत
सुब्ह को देखते ही भूल गए शाम को हम

आँख वो फ़ितना-ए-दौराँ किसे दिखलाता है
शो'बदा जानते हैं गर्दिश-ए-अय्याम को हम

फ़ित्ना-अंगेज़ी भी छुपती है कहीं पर्दे में
सुनते हैं गब्र ओ मुसलमाँ से तिरे नाम को हम

ख़ून-ए-क़ासिद तो वो सफ़्फ़ाक समझता है हलाल
किसी ग़म्माज़ से भेजवाएँगे पैग़ाम को हम

पाँव पकड़े हैं ज़मीं ने ये तिरे कूचा की
रह-ए-सद-ए-साला समझते हैं अब इक गाम को हम

दीदा-ए-यार कहें क्या उसे कैफ़-ए-मय में
भून कर रोज़ गज़क करते हैं बादाम को हम

बेज़ा-ए-ख़त से हुई उस की कुदूरत दह-चंद
अब सफ़ाई के लिए ढूँडेंगे हज्जाम को हम

यही तहसील-ए-मोहब्बत का है आलम ता-हाल
पुख़्ता करते हैं हनूज़ आरज़ू-ए-ख़ाम को हम

लुत्फ़ हासिल हो जो ज़ुल्फ़ों में गिरफ़्तारी का
मोल लें दिल की असीरी के लिए दाम को हम

कूचा-ए-यार में अपना जो गुज़र होता है
निगराँ रहते हैं हसरत से दर-ओ-बाम को हम

हुस्न से इश्क़ की ख़ातिर है ख़ुदा ने भेजा
करते हैं 'आतिश' उसे आए हैं जिस काम को हम