आईनों में अक्स न हों तो हैरत रहती है
जैसे ख़ाली आँखों में भी वहशत रहती है
हर दम दुनिया के हंगामे घेरे रखते थे
जब से तेरे ध्यान लगे हैं फ़ुर्सत रहती है
करनी है तो खुल के करो इंकार-ए-वफ़ा की बात
बात अधूरी रह जाए तो हसरत रहती है
शहर-ए-सुख़न में ऐसा कुछ कर इज़्ज़त बन जाए
सब कुछ मिट्टी हो जाता है इज़्ज़त रहती है
बनते बनते ढह जाती है दिल की हर तामीर
ख़्वाहिश के बहरूप में शायद क़िस्मत रहती है
साए लरज़ते रहते हैं शहरों की गलियों में
रहते थे इंसान जहाँ अब दहशत रहती है
मौसम कोई ख़ुशबू ले कर आते जाते हैं
क्या क्या हम को रात गए तक वहशत रहती है
ध्यान में मेला सा लगता है बीती यादों का
अक्सर उस के ग़म से दिल की सोहबत रहती है
फूलों की तख़्ती पर जैसे रंगों की तहरीर
लौह-ए-सुख़न पर ऐसे 'अमजद' शोहरत रहती है
ग़ज़ल
आईनों में अक्स न हों तो हैरत रहती है
अमजद इस्लाम अमजद