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आईने टूटते हैं नज़र को रसाई दे | शाही शायरी
aaine TuTte hain nazar ko rasai de

ग़ज़ल

आईने टूटते हैं नज़र को रसाई दे

मोनी गोपाल तपिश

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आईने टूटते हैं नज़र को रसाई दे
अपनी ही क्यूँ न हो कोई सूरत दिखाई दे

है उस की नेकियों में अभी तक मिरा शुमार
बे-शक वो मेरे नाम हज़ारों बुराई दे

ऐ याद-ए-यार साथ तिरे चल चुका बहुत
मैं थक के चूर-चूर हुआ अब रिहाई दे

मैं ने हर इक गुनाह तुम्हारा छुपा लिया
मानेगा कौन लाख अंधेरा सफ़ाई दे

फिर रास्तों पे रात भटकती है ऐ 'तपिश'
मैं इक दिया जलाऊँ कि मंज़िल दिखाई दे