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आईना-ए-ख़याल था अक्स-पज़ीर राज़ का | शाही शायरी
aaina-e-KHayal tha aks-pazir raaz ka

ग़ज़ल

आईना-ए-ख़याल था अक्स-पज़ीर राज़ का

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

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आईना-ए-ख़याल था अक्स-पज़ीर राज़ का
तूर शहीद हो गया जल्वा-ए-दिल-नवाज़ का

पाया बहुत किया बुलंद उस ने हरीम-ए-नाज़ का
ता ना पहुँच सके ग़ुबार‌‌‌-ए-रह-गुज़र-ए-नियाज़ का

ख़स्तगी-ए-कलीम ने नुक्ता अजब समझा दिया
वर्ना हरीफ़ में भी था इस मिज़ा-ए-दराज़ का

दैर मिला था राह में का'बे को हम निकल गए
जज़्बा-ए-शौक़ में दिमाग़ किस को हो इम्तियाज़ का

बंदगी और साहबी अस्ल में दोनों एक हैं
जिस का ग़ुलाम अयाज़ है वो है ग़ुलाम अयाज़ का

गो तही-नसीब ने दूर रखा तो क्या हुआ
बंदा-ए-ख़ाना-ज़ाद हूँ उस के क़द‌‌‌‌-ए-दराज़ का

शौक़ तिरा है मौजज़न ज़ौक़ तिरा बहाना-जू
खोल न दें भरम कहीं परद ज्ञान राज़ का

मस्ती-ए-बे-ख़ुदी से याँ आँख खुली न हश्र तक
या'नी यही जवाब था नर्गिस-ए-नीम-बाज़ का

आह-ओ-फ़ुग़ाँ के साथ साथ छा गई एक बे-ख़ुदी
क़त-ए-ज़बाँ ज़रूर था शम-ए-ज़बाँ-दराज़ का

ख़ाक में मिल गए वले आँख उठी न शर्म से
हम से हुआ न हक़ अदा उस की निगाह-ए-नाज़ का

मुतरिब-ए-ख़ुल्द क्या सुनाए वहशत-ए-ख़स्ता क्या सुने
मो'तक़िद-ए-क़दीम है ज़मज़मा हिजाज़ का