आईना-ए-ख़याल था अक्स-पज़ीर राज़ का
तूर शहीद हो गया जल्वा-ए-दिल-नवाज़ का
पाया बहुत किया बुलंद उस ने हरीम-ए-नाज़ का
ता ना पहुँच सके ग़ुबार-ए-रह-गुज़र-ए-नियाज़ का
ख़स्तगी-ए-कलीम ने नुक्ता अजब समझा दिया
वर्ना हरीफ़ में भी था इस मिज़ा-ए-दराज़ का
दैर मिला था राह में का'बे को हम निकल गए
जज़्बा-ए-शौक़ में दिमाग़ किस को हो इम्तियाज़ का
बंदगी और साहबी अस्ल में दोनों एक हैं
जिस का ग़ुलाम अयाज़ है वो है ग़ुलाम अयाज़ का
गो तही-नसीब ने दूर रखा तो क्या हुआ
बंदा-ए-ख़ाना-ज़ाद हूँ उस के क़द-ए-दराज़ का
शौक़ तिरा है मौजज़न ज़ौक़ तिरा बहाना-जू
खोल न दें भरम कहीं परद ज्ञान राज़ का
मस्ती-ए-बे-ख़ुदी से याँ आँख खुली न हश्र तक
या'नी यही जवाब था नर्गिस-ए-नीम-बाज़ का
आह-ओ-फ़ुग़ाँ के साथ साथ छा गई एक बे-ख़ुदी
क़त-ए-ज़बाँ ज़रूर था शम-ए-ज़बाँ-दराज़ का
ख़ाक में मिल गए वले आँख उठी न शर्म से
हम से हुआ न हक़ अदा उस की निगाह-ए-नाज़ का
मुतरिब-ए-ख़ुल्द क्या सुनाए वहशत-ए-ख़स्ता क्या सुने
मो'तक़िद-ए-क़दीम है ज़मज़मा हिजाज़ का
ग़ज़ल
आईना-ए-ख़याल था अक्स-पज़ीर राज़ का
वहशत रज़ा अली कलकत्वी