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आईना-दर-आईना क़द-आवरी का कर्ब है | शाही शायरी
aaina-dar-aina qad-awari ka karb hai

ग़ज़ल

आईना-दर-आईना क़द-आवरी का कर्ब है

कलीम हैदर शरर

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आईना-दर-आईना क़द-आवरी का कर्ब है
गुम-शुदा दानिश-वरी है ख़ुद-सरी का कर्ब है

मेरा दुख ये है कि मैं ना-मो'तबर लश्कर में हूँ
सर-ब-नेज़ा मैं नहीं हूँ इक जरी का कर्ब है

भूक को निस्बत नहीं गेहूँ की पैदावार से
मेरा दस्तर-ख़्वान ख़ाली तश्तरी का कर्ब है

इक तरफ़ यारों की यारी का भरम खुलता हुआ
इक तरफ़ इख़्लास की बख़िया-गरी का कर्ब है

अपने दरवाज़े पे बैठा सोचता रहता हूँ मैं
मेरा घर अज्दाद की बारा-दरी का कर्ब है

वो ज़माना है कि अब तार-ए-नफ़स भी है गिराँ
ब'अद की मंज़िल तो बस ख़ुश-पैकरी का कर्ब है

वक़्त की मीज़ान पर बीनाई ख़ंदाँ है 'शरर'
कोर-बीनों में भी अब दीदा-वरी का कर्ब है