आह से या आह की तासीर से
जी बहल जाता किसी तदबीर से
अब से ग़म सहने की आदत ही सही
सुल्ह कर लें लाओ चर्ख़-ए-पीर से
जब्र को क्यूँकर न समझूँ इख़्तियार
तुम ने बाँधा है मुझे ज़ंजीर से
काम अब उस तदबीर पर है मुनहसिर
वास्ता जिस को न हो तक़दीर से
उस निगाह-ए-नाज़ का अल्लाह रे फ़ैज़
निस्बतें हैं ज़ख़्म-ए-दिल को तीर से
होशियार ओ शोख़-ए-बे-परवा-ख़िराम
बच के मेरी ख़ाक-ए-दामन-गीर से
इश्क़-ए-'फ़ानी' उस पे अपनी ये बिसात
खेलती हैं बिजलियाँ तस्वीर से
ग़ज़ल
आह से या आह की तासीर से
फ़ानी बदायुनी