आह कब लब पर नहीं है दाग़ कब दिल में नहीं
कौन सी शब है कि गर्मी अपनी महफ़िल में नहीं
बज़्म की कसरत से अंदेशा मिरे दिल में नहीं
दिल में उस की है जगह मेरे जो महफ़िल में नहीं
पंजा-ए-मिज़्गान-ए-तर ने ये उड़ाईं धज्जियाँ
तार बाक़ी एक भी दामान-ए-साहिल में नहीं
ख़ून-ए-नाहक़ का हमारे दाग़ मिटने का नहीं
तेग़ में होगा अगर दामान-ए-क़ातिल में नहीं
पर्दा-दार चेहरा-ए-यूसुफ़ नहीं है हर नक़ाब
हुस्न-ए-लैला जल्वा-गर हर एक महफ़िल में नहीं
नज्द का सहरा अजब सहरा-ए-वहशत-ख़ेज़ है
क़ैस क्या लैला को भी आराम मंज़िल में नहीं
जिस तरफ़ जी चाहेगा मेरा निकल जाऊँगा मैं
सैकड़ों दरवाज़े हैं हल्क़े सलासिल में नहीं
हद से बाहर पाँव जो रखता है होता है ख़राब
घर में जो राहत मुसाफ़िर को है मंज़िल में नहीं
डूबते जाते हैं क्यूँकर लोग हैरत है मुझे
क़द्द-ए-आदम आब बहर-ए-तेग़-ए-क़ातिल में नहीं
हो गया दहशत से ऐसा बिस्मिलों का ख़ून ख़ुश्क
एक भी धब्बा लहू का तेग़-ए-क़ातिल में नहीं

ग़ज़ल
आह कब लब पर नहीं है दाग़ कब दिल में नहीं
मुज़फ़्फ़र अली असीर