आग़ाज़-ए-इश्क़ उम्र का अंजाम हो गया
नाकामियों के ग़म में मिरा काम हो गया
तुम रोज़-ओ-शब जो दस्त-ब-दस्त-ए-अदू फिरे
मैं पाएमाल-ए-गर्दिश-ए-अय्याम हो गया
मेरा निशाँ मिटा तो मिटा पर ये रश्क है
विर्द-ए-ज़बान-ए-ख़ल्क़ तिरा नाम हो गया
दिल चाक चाक नग़्मा-ए-नाक़ूस ने किया
सब पारा पारा जामा-ए-एहराम हो गया
अब और ढूँडिए कोई जौलाँ-गह-ए-जुनूँ
सहरा ब-क़द्र-ए-वुसअत-यक-गाम हो गया
दिल पेच से न तुर्रा-ए-पुर-ख़म के छुट सका
बाला-रवी से मुर्ग़ तह-ए-दाम हो गया
और अपने हक़ में ता'न-ए-तग़ाफ़ुल ग़ज़ब हुआ
ग़ैरों से मुल्तफ़ित बुत-ए-ख़ुद-काम हो गया
तासीर-ए-जज़्बा क्या हो कि दिल इज़्तिराब में
तस्कीं-पज़ीर बोसा-ब-पैग़ाम हो गया
क्या अब भी मुझ पे फ़र्ज़ नहीं दोस्ती-ए-कुफ़्र
वो ज़िद से मेरी दुश्मन-ए-इस्लाम हो गया
अल्लाह-रे बोसा-ए-लब-ए-मय-गूँ की आरज़ू
मैं ख़ाक हो के दुर्द-ए-तह-ए-जाम हो गया
अब तक भी है नज़र तरफ़-ए-बाम-ए-माह-वश
मैं गरचे आफ़्ताब-ए-लब-ए-बाम हो गया
अब हर्फ़-ए-ना-सज़ा में भी उन को दरेग़ है
क्यूँ मुझ को ज़ौक़-ए-लज्ज़त-ए-दुश्नाम हो गया
ग़ज़ल
आग़ाज़-ए-इश्क़ उम्र का अंजाम हो गया
इस्माइल मेरठी